वेदारंभ
संस्कार के
अंतर्गत व्यक्ति
को वेदों
का ज्ञान
दिया जाता
है।
विद्यया
लुप्यते पापं
विद्यायाऽयुः प्रवर्धते।
विद्याया
सर्वसिद्धिः स्याद्विद्ययाऽमृतमश्रुते।।
अर्थात
वेद
विद्या
के
अध्ययन
से
सारे
पापों
का
लोप
होता
है
अर्थात्
पाप
समाप्त
हो
जाते
हैं, आयु
की
वृद्धि
होती
है, समस्त
सिद्धियां
प्राप्त
होती
हैं, यहां
तक
कि
उसके
समक्ष
अमृत-रस
अक्षनपान
के
रूप
में
उपलब्ध
हो
जाता
है।
अनेक
विद्वान
वेदारंभ
संस्कार
को
अक्षरज्ञान
संस्कार
के
साथ
जोड़कर
देखते
हैं।
उनके
अनुसार
अक्षरों
का
ज्ञान
प्राप्त
किये
बिना
न
तो
वेदों
का
अध्ययन
किया
जा
सकता
है
और
न
शास्त्रों
का
लेखन
कार्य
संभव
है।
इसलिये
वे
वेदारंभ
संस्कार
से
पूर्व
अक्षरारंभ
संस्कार
पर
बल
देते
हैं।
इस
बारे
में
अनेक
विद्वानों
का
विचार
है
कि
प्रारंभ
में
तो
व्यक्ति
को
अक्षर
(लिपि) का ज्ञान
नहीं
था।
इसलिये
तब
गुरुमुख
द्वारा
ही
वेदों
का
अध्ययन
किया
जाता
था।
इसके साथ ही
ब्राह्मण
ही
नहीं
अपितु
सभी
जन
जाती
एवं
चरों
वर्ण
से
जुड़े
लोग
अपने-अपने
धर्म
और
कर्म से जुड़े वैदिक ज्ञान
को
प्राप्त
कर
समाज
में
अपने
नाम
को
अग्रसर
करते
रहते
हैं।
वेदारंभ
संस्कार का
महत्व:-
ज्ञानार्जन से सम्बन्धित है यह संस्कार। वेद का अर्थ होता है ज्ञान और वेदारम्भ के माध्यम से जातक अब ज्ञान को अपने अन्दर समाविष्ट करना शुरू करे यही अभिप्राय है इस संस्कार का। शास्त्रों में ज्ञान से बढ़कर दूसरा कोई प्रकाश नहीं समझा गया है। स्पष्ट है कि प्राचीन काल में यह संस्कार मनुष्य के जीवन में विशेष महत्व रखता था। यज्ञोपवीत के बाद बालकों को वेदों का अध्ययन एवं विशिष्ट ज्ञान से परिचित होने के लिये योग्य आचार्यो के पास गुरुकुलों में भेजा जाता था। वेदारम्भ से पहले आचार्य अपने शिष्यों को ब्रह्मचर्य व्रत कापालन करने एवं संयमित जीवन जीने की प्रतिज्ञा कराते थे तथा उसकी परीक्षा लेने के बाद ही वेदाध्ययन कराते थे। असंयमित जीवन जीने वाले वेदाध्ययन के अधिकारी नहीं माने जाते थे। हमारे चारों वेद ज्ञान के अक्षुण्ण भंडार हैं।
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