यह संस्कार बच्चे के दांत निकलने के समय अर्थात 6-7 महीने की उम्र में किया जाता है। इस संस्कार के बाद बच्चे को अन्न खिलाने की शुरुआत हो जाती है। इस दिन किसी चांदी के बर्तन में अन्न रख कर शिशु के मुख में माँ के द्वारा पहला निवाला खिलाया जाता है।
अन्नप्राशन संस्कार का महत्व-
जीवन धारण के लिए तथा शारीरिक शक्ति के लिए अन्न का महत्व सर्वविदित है ही, इसलिए हमारे दार्शनिकों ने अन्न को प्राण ब्रह्म, यज्ञ और विष्णु कहा है। किंतु पेय पर निभर रहने वाला शिशु उसे अभी भोज्य ( ठोस ) रुप में ग्रहण नहीं कर सकता। दन्ताभाव के कारण न तो वह उसका चर्वण ही कर सकता है और न उसकी पाचन क्रिया ही उसे पचाने के लिए पुष्ट हुई होती है। अतः अन्नप्राशन के लिए उसका लेह्य पदार्थ, स्थालीपाक बनाया जाता है। संस्कार पद्धतियों के अनुसार प्राशनार्थ तैयार किये गये लेह्य चरु में वैदिक मंत्रों के साथ मधु, घृत तथा तुलसीदल भी मिश्रित किया जाता है। जिनका अपना- अपना महत्व माना गया है। इन प्रथम प्राशनीय पदार्थों का चयन इस विशेष आस्था के अंतर्गत किया जाता है कि हमारा भोजन हमारे शरीर के अतिरिक्त हमारे मन एवं बुद्धि को भी प्रभावित करता है (जैसा खाये अन्न,वैसा होये मन)।
बालक को जब पेय पदार्थ,दूध आदि के अतिरिक्त अन्न देना प्रारम्भ किया जाता है, तो वह शुभारम्भ यज्ञीय वातावरण युक्त धर्मानुष्ठान के रूप में होता है। इसी प्रक्रिया को अन्नप्राशन संस्कार कहा जाता है। बालक को दाँत निकल आने पर उसे पेय के अतिरिक्त खाद्य दिये जाने की पात्रता का संकेत है। तदनुसार अन्नप्राशन 6 माह की आयु के आस-पास कराया जाता है। अन्न का शरीर से गहरा सम्बन्ध है। मनुष्यों और प्राणियों का अधिकांश समय साधन-आहार व्यवस्था में जाता है। उसका उचित महत्त्व समझकर उसे सुसंस्कार युक्त बनाकर लेने का प्रयास करना उचित है। अन्नप्राशन संस्कार में भी यही होता है। अच्छे प्रारम्भ का अर्थ है- आधी सफलता। अस्तु, बालक के अन्नाहार के क्रम को श्रेष्ठतम संस्कारयुक्त वातावरण में करना अभीष्ट है। यर्जुवेद के 40 वें अध्याया का पहला मन्त्र 'तेन त्यक्तेन भुंजीथा' (त्याग के साथ भोग करने) का र्निदेश करता है। हमारी परम्परा यही है कि भोजन थाली में आते ही चींटी, कुत्ता आदि का भाग उसमें से निकालकर पंचबलि करते हैं। भोजन ईश्वर को समर्पण कर या अग्नि में आहुति देकर तब खाते हैं। होली का पर्व तो इसी प्रयोजन के लिए है। नई फसल में से एक दाना भी मुख डालने से पूर्व, पहले उसकी आहुतियाँ होलिका यज्ञ में देते हैं। तब उसे खाने का अधिकार मिलता है। किसान फसल मींज-माँड़कर जब अन्नराशि तैयार कर लेता है, तो पहले उसमें से एक टोकरी भर कर धर्म कार्य के लिए अन्न निकालता है, तब घर ले जाता है। त्याग के संस्कार के साथ अन्न को प्रयोग करने की दृष्टि से ही धर्मघट-अन्नघट रखने की परिपाटी प्रचलित है। भोजन के पूर्व बलिवैश्व देव प्रक्रिया भी अन्न को यज्ञीय संस्कार देने के लिए की जाती है।
अन्नप्राशन संस्कार को करने की मुख्य चार रीति -
1- पात्रपूजन,
2- अन्न- संस्कार,
3- विशेष आहुति
4- खीर प्राशन
अन्नप्राशन संस्कार के लिए प्रयुक्त होने वाली कटोरी तथा चम्मच। चटाने के लिए चाँदी का चम्मच प्राप्त करें । अलग पात्र में बनी हुई खीर, शहद, घी, तुलसीदल तथा गङ्गाजल- ये पाँच वस्तुएँ तैयार रखनी चाहिए।
पात्र में करे सभी खाद्य वस्तु एकत्रित-
( खीर, सहद (मधु ) घृत , तुलसी ,गंगाजल )
अक्षत-पुष्प-
मन्त्र:-
तत्त्वं पूषन्नपावृणु सत्यधर्माय दृष्टये॥
मन्त्रोच्चार के साथ माता - पिता पात्र के बाहर चन्दन, रोली से स्वस्तिक बनाएँ। अक्षत- पुष्प चढ़ाएँ। भावना करें कि पवित्र वातावरण के प्रभाव से पात्रों में दिव्यता की स्थापना की जा रही है, जो बालक के लिए रखे गये अन्न को दिव्यता प्रदान करेगी, उसकी रक्षा करेगी। माता- पिता हाथ में रोली या चन्दन लेकर ब्रह्म द्वारा किये जा रहे मन्त्र पाठ को ध्यान से सुन कर उसका पालन करें।
खीर के पात्र को हाथ में लें-
ॐ कुसंस्काराः दूरीभूयासुः। (अन्न के पूर्व कुसंस्कारों का निवारण करते हैं।)
मन्त्र- ॐ पयः पृथिव्यां पयऽओषधीषु पयो दिव्यन्तरिक्षे पयोधाः।पयस्वतीः प्रदिशः सन्तु मह्यम्॥
मन्त्रों के
पाठ
के
साथ
अन्नप्राशन
के
लिए
रखे
गये
पात्र
में
एक-
एक
करके
भावनापूर्वक
सभी
वस्तुएँ
डाली-
मिलाई
जाएँ।
पात्र
में
खीर
डालें।
मात्रा
इतनी
लें
कि
५
आहुतियाँ
देने
के
बाद
भी
शिशु
को
चटाने
के
लिए
कुछ
बची
रहे।
भावना
करें
कि
यह
अन्न
दिव्य
संस्कारों
को
ग्रहण
करके
बालक
में
उन्हें
स्थापित
करने
जा
रहा
है।
प्रतिनिधि
खीर
के
पात्र
को
हाथ
में
लें
और
ध्यान
करें।
मधु-
ॐ मधु
वाता
ऽ
ऋतायते
मधु
क्षरन्ति
सिन्धवः।
माध्वीर्नः
सन्त्वोषधीः॥
ॐ मधु
नक्तमुतोषसो
मधुमत्पार्थिव
* रजः। मधु द्यौरस्तु
नः
पिता॥
ॐ मधुमान्नो
वनस्पतिर्मधुमाँ२
अस्तु
सूर्यः।
माध्वीर्गावो
भवन्तु
नः॥
पात्र की
खीर
के
साथ
थोड़ा
शहद
मिलाएँ।
भावना
करें
कि
यह
मधु
उसे
सुस्वादु
बनाने
के
साथ-
साथ
उसमें
मधुरता
के
संस्कार
उत्पन्न
कर
रहा
है।
इससे
शिशु
के
आचरण, वाणी-
व्यवहार
सभी
में
मधुरता
बढ़ेगी।
-
घृतं-
ॐ
घृतं
घृतपावानः
पिबत
वसां
वसापावानः।
पिबतान्तरिक्षस्य
हविरसि
स्वाहा।
दिशः
प्रदिशऽआदिशो
विदिशऽद्दिशो
दिग्भ्यःस्वाहा॥
पात्र में
थोड़ा
घी
डालें, मन्त्र
के
साथ
मिलाएँ।
यह
घी
रूखापन
मिटाकर
स्निग्धता
देगा।
यह
पदार्थ
बालक
के
अन्दर
शुष्कता
का
निवारण
करके
उसके
जीवन
में
स्नेह, स्निग्धता, सरसता
का
सञ्चार
करेगा।
तुलसीदल-
ॐ याऽ
ओषधीः
पूर्वा
जाता
देवेभ्यस्त्रियुगं
पुरा।
मनै नु
बभ्रूणामह*
शतं
धामानि
सप्त
च॥
पात्र में
तुलसीदल
के
टुकड़े
मन्त्र
के
साथ
डालें।
यह
ओषधि
शारीरिक
ही
नहीं; वरन्
आधिदैविक, आध्यात्मिक
रोगों
का
शमन
करने
में
भी
सक्षम
है।
यह
अपनी
तरह
ईश्वर
को
समर्पित
होने
के
संस्कार
बालक
को
प्रदान
करेगी।
गङ्गाजल-
ॐ पञ्च
नद्यः
सरस्वतीमपि
यन्ति
सस्रोतसः।
सरस्वती तु
पञ्चधा
सो
देशेभवत्सरित्॥-
गङ्गाजल की
कुछ
बूँदें
पात्र
में
डालकर
मिलाएँ।
पतितपावनी
गङ्गा
खाद्य
की
पापवृत्तियों
का
हनन
करके
उसमें
पुण्य
संवर्द्धन
के
संस्कार
पैदा
कर
रही
हैं।
ऐसी
भावना
के
साथ
उसे
चम्मच
से
मिलाकर
एक
दिल
कर
दें।
जैसे
यह
सब
भिन्न-
भिन्न
वस्तुएँ
एक
हो
गयीं, उसी
प्रकार
भिन्न-
भिन्न
श्रेष्ठ
संस्कार
बालक
को
एक
समग्र
श्रेष्ठ
व्यक्तित्व
प्रदान
करें।
खीर-
सभी वस्तुएँ
मिलाकर
वह
मिश्रण
पूजा
वेदी
के
सामने
संस्कारित
होने
के
लिए
रख
दिया
जाए।
इसके
बाद
अग्नि
स्थापन
से
लेकर
गायत्री
मन्त्र
की
आहुतियाँ
पूरी
करने
तक
का
क्रम
चलाया
जाए।
आहुतियाँ
पूरी
होने
पर
शेष
खीर
से
बच्चे
को
अन्नप्राशन
कराया
जाए।
मन्त्र- ॐ अन्नपतेन्नस्य
नो
देह्यनमीवस्य
शुष्मिणः।
प्रप्रदातारं
तारिषऽऊर्जं
नो
धेहि
द्विपदे
चतुष्पदे॥
खीर का
थोड़ा-
सा
अंश
चम्मच
से
मन्त्र
के
साथ
बालक
को
चटा
दिया
जाए।
भावना
की
जाए
कि
वह
यज्ञावशिष्ट
खीर
अमृतोपम
गुणयुक्त
है
और
बालक
के
शारीरिक
स्वास्थ्य, मानसिक
सन्तुलन, वैचारिक
उत्कृष्टता
तथा
चारित्रिक
प्रामाणिकता
का
पथ
प्रशस्त
करेगी।
इसके
बाद
स्विष्टकृत्
होम
से
लेकर
विसर्जन
तक
के
कर्म
पूरे
किये
जाएँ।
विसर्जन
के
पूर्व
बालक
को
सभी
लोग
आशीर्वाद
दें।
वसंत पंचमी देवी सरस्वती के जन्मदिन की पूर्व संध्या पर मनाई जाती है। इसमें उत्सव से संबंधित कई पौराणि...
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