हिन्दू धर्म में बहुत सारे पौराणिक कथाएं और धार्मिक मान्यताएं जुडी हुई है. हिन्दुओं के आबादी का एक मुख्य हिस्सा अनन्य रूप से इन मान्यताओं का अनुकरण करता है. अभी भी मिथ्या धारणा या ये कहे की चीजों को तोड़-मरोड़ कर समाज को एक नया रूप दे दिया गया है.अंतरजातीय विवाह को हिन्दू धर्म में एक सामाजिक निषेध के रूप में माना जाता है.
लोगों को यह मानना है की जो लोग इस प्रतिबन्ध को तोड़ते है उन्हें अपने बुरे कर्मों के कारण दुर्भाग्य और नकारात्मक चीजें झेलनी पडती है.
आइए, इस प्रसंग पर हिन्दू धर्म के सबसे पवित्र ग्रन्थ -‘श्री
मद्भागवत गीता’ के आधार पर चर्चा करते है. वास्तव में जाति आवंटन की यह पूरी प्रणाली ‘द्वापरयुग’ से ही आम लोगों के समझ में नहीं आयी है.
गीता अध्याय -4 , छंद 13.
“चातुर-वर्न्यम माया स्र्स्तम गुना-कर्मा-विभागासः
तस्य कर्तारं अपि मम विद्धि अकर्तारं अव्ययम”
भगवान् श्रीकृष्ण कहते है :
“ व्यवसाय की चार श्रेणियां लोगों के तीन गुणों और क्रियाकलाप(गुण और कर्म) के अनुसार मेरे द्वारा बनाई गई है. यधपि मैं इस प्रणाली का निर्माता हूँ मुझे अकर्ता और सनातन के रूप में जानते है.”
- गीता के इस छंद में साफ़-साफ़ कहा गया है की लोगों को जाति उनके जन्म के आधार पर नहीं, अपितु उनके तीन गुणों और उनके द्वारा किये गये व्यवसाय के आधार पर सौंपी गई है.
- कोई भी बच्चें को अपने माता-पिता के ही जाति में स्वतः ही होने के लिए बाध्य नहीं है.
- जाति आवंटन का उद्देश्य व्यक्ति को उसके विशेष कर्म में सक्षम बनाना और ‘मोक्ष’ के तरफ पहुँचाना है.
गीता अध्याय 1 , छंद 40, 41
“अधर्मभिभावत कृष्णा प्रदुष्यन्ति कुलस्त्रियः
स्त्रीषु दुष्टासु वार्ष्णेयॊ जयते वर्नासंकारह”
“संकरः नाराकाया ईवा कुला घनानं
कुलस्य का पतन्ति पितरः ही इसम लुप्त पिंड उदका क्रियाः”
अर्जुन कहते है :
“हे कृष्ण, पापों की अधिकता से परिवार की स्त्रियाँ चरित्रहीन हो जाती है और ओ वृष्णि के उत्तराधिकारी, स्त्रियों के भ्रष्ट होने से , अनिष्ट संताने पैदा हुई.”
यहाँ अर्जुन कृष्ण से कह रहे है की विभिन जातियों के पारिवारों में स्त्रियाँ भ्रष्ट हो जाती है और परिवार के पितृस बिना पिंडदान पायें ही अलग हो जाते है जो परिवार को नरक के द्वार पर ले जाती है. जब अनिष्ट संतानों में वृद्धि होती है तब यह एक परिवार तथा परिवार की परम्परा को तोड़ने वाले लोग, दोनों के लिए ही नारकीय स्थिति पैदा कर देती है. इस प्रकार के भ्रष्ट परिवारों में पूर्वजों को भोजन और पानी के नहीं अर्पण किये जाते है.
गीता अध्याय 2, छंद 3
अध्याय 1 के छंद 41 और 40 में अर्जुन के दिए गए टिपण्णी के उत्तर में;
कृष्ण कहते है :
“क्लैब्यं माँ स्म गमः पर्थ नैत्वत त्वय्युपपद्यते
क्षुद्रं हृदय-दौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप”
“हे पार्थ, इस अपौरुष को मान लेना आपको शोभा नही देता है. ओ , शत्रुओं को पराजित करने वाले विजेता, ह्रदय के इस प्रकार के तुच्छ दोष का त्याग करें और इससे ऊपर निकलें.”
“अतः , भगवद्गीता में भगवान् कृष्ण ने साफ़ तौर पर अंतर्जातीय विवाह का समर्थन किया है.”
जाति भेदभाव इंसानों द्वारा प्रथा में लायी गई है और जो लोग इसका अनुकरण करते है , उन्हें भगवान् द्वारा गीता में “कायर” करार दिया गया है. अतः, अगर आप हिन्दू है और आप यह सोचते है की अंतर्जातीय विवाह का समर्थन नहीं कर के अपने धर्म और वंश परम्परा में पद्दोन्नति कर रहे है , तो आप गलत है !
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