नमस्ते! आपमें से बहुतों ने यह सुना होगा की भगवान् और देवत्व या भगवान् तक पहुँचने के चार मुख्य मार्ग (चार पवित्र रिश्तें) है जैसा की प्राचीन ऋषियों द्वारा प्रमाणित किया हुआ है. ये है:
- भक्ति – ( समर्पण का मार्ग, उनके लिए बताया गया है जो भगवान् से प्रेम करते है और भावात्मक स्वाभाव के है. )
- ज्ञान – ( ज्ञान का मार्ग, उनके लिए बताया गया है जो अच्छी बुद्धि युक्त होते है. )
- कर्मा – ( कर्म का पथ, उनके लिए जो ऊर्जावान और काम में डूबे रहते है. )
- राजा – ( ध्यान का राजसी मार्ग, उनके लिए जो आत्मविश्लेषी भाव के होते है. )
जब ये सभी मार्ग या तो अकेले या एकसाथ मिलकर भगवान् को ढूंढने वाले को भगवान् से मिलने के अंतिम लक्ष्य तक ले जाने में प्रभावशाली है तो किसी भी अन्य मार्ग की तरह उन्हें भी अपनी यात्रा में अलग-अलग स्थितियाँ मिलती है.
ये चारों पड़ाव उपनिशादिक ऋषियों द्वारा बड़े ही रोचक ढंग से वर्णित किये गए है जो की नीचे दिए गए है :
सलोका : जिसका अर्थ है भगवान् से उनके ही घर में निकटता अथवा एक ही ग्रह में रहना (जो की धरती हो सकती है क्योंकि भगवान् यहाँ अवतार लेते है)
समीपा : जिसका अर्थ है निकटता या भगवान् से भौतिक निकटता.
सरुपा : जिसका अर्थ है स्वयं में भगवान् की समरूपता.
सयुजा : जिसका अर्थ है भगवान् से पूर्ण मिलन.
अब, रोचक ढंग से प्राचीन भारत के ऋषि ना केवल भगवान् तक जाने के कई मार्ग जानते थे बल्कि वे भगवान् के साथ कई रिश्तों को साझा करना भी समझते थे.
सलोका में दश मार्ग थे जिसमें वे स्वयं को भगवान् का विनीत सेवक समझते थे.
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अगला था सत्पुत्र मार्ग, जिसमे ये भक्त स्वयं को भगवान की संतान समझते थे और यथार्थ में स्वयं को भौतिक रूप से भगवान् के निकट मानते थे वैसे ही जैसे की एक पालन-पोषण करने वाला पिता हो या माता.
सखा मार्ग में भक्त एक कदम आगे थे, वे भगवान् को मित्र की तरह प्रेम करते थे और अचरज की स्वयं के व्यक्तित्व को अपने परमप्रिय के साथ मिलाते थे जैसा की अक्सर मित्र आपस में करते है.
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अंत में, प्रबुद्ध ऋषियों का सन मार्ग जिसमे वे स्वयं को वास्तव में अपने भगवान् में पूर्णतः विलीन कर लेते थे जिससे वे प्रेम करते थे. पहले एक दास की तरह, फिर एक संतान की तरह, उसके बाद एक मित्र की तरह और अंततः व्यक्तिगत तौर पर सार्वभौमिक चेतना में पूर्ण विलीनीकरण.
वहां दो नहीं शेष रहते थे , केवल एक ही शेष होता! केवल भगवान् अंत तक सही रहते है जैसे ब्रहमांड के आरंभ में केवल वही उचित है और स्वयं में समय.
ऋषियों के लिए ये चार सम्बन्ध संकेत थे जहाँ एक भक्त अपने भगवान् की खोज में उनके देवत्व के लिए पहुँचता है. हालांकि ये कोई बहुत नपा-तुला नियम नहीं है , अंत में ये एक तरह की क्रमिक सोच है भगवान् से मिलने के लिए भी. ईश्वर के लिए सभी प्रेम का आरंभ सेवक और मालिक के एक साथ मिलने से होता है लेकिन आख़िरकार, ये द्वंद केवल ईश्वर पर ही खत्म होती है.
महान संत परमहंस रामकृष्णन जो स्वामी विवेकानंद के गुरु थे , अक्सर एक लघु कथा कहते और ईश्वर प्राप्ति के इन अवस्थाओं का वर्णन करने वाली इस घटना पर हँसते :
“एक बार एक नमक की गुडिया समुंदर को नापने गई” यही वो कहा करते थे और इसके स्पष्ट परिणाम पर हँसते थे : ना गुडिया , केवल समुंदर.
पुरातन काल से भगवान् की लीला सभी प्राणियों के साथ चली आ रही है.
इस लीला में, ना केवल संतों और पापीयों, सज्जनों और दुर्जनों ने ही अपनी भूमिका निभाई बल्कि हमने और आपने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. हम यहाँ अपनी भूमिका निभाने के लिए है. इस प्रकार से, हमारे लिए यह जानना अनिवार्य है की हमारे परमप्रिय के साथ हमारा क्या संबंध है. हमें खुद के साथ शांति से बैठ कर अपना मार्ग तय करना चाहिए की क्या वो भक्ति, कर्म, ज्ञान या ध्यान है अथवा इन सभी को एकसाथ मिला दें. और तब इस सलोका में हमारी यात्रा का आरंभ अवश्य होगा.
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Mijhe wishwas h ki ,Yah Gyan Meri Chetna or adhyatm ki or lejane me mujhe sahayak h…..