“गुरु” केवल एक शारीरिक रूप नहीं है, वो एक ऊर्जा है, एक साधन है जिससे ज्ञान और बुद्धि शिष्य या छात्र में आते है. अगर शिष्य एक बर्फ जैसे ठन्डे पत्थर जैसा है और ज्ञान खौलता हुआ गर्म पानी तो गुरु इस गर्म पानी को उस ठन्डे पत्थर पर धीरे-धीरे बूंद-बूंद कर डालते है और इस तरह धीरे-धीरे कर के इस पत्थर को पानी की गर्मी से तोड़ देता है.
शिक्षक आपको आपका सच्चा स्वरूप दिखाते है
एक गुरु अपने शिष्य की पूरी जिम्मेदारी लेते है और प्रति दिन हर सेकंड उसे शिक्षित करते है. वस्तुतः गुरु शिष्य को उसके विकास की यात्रा पर लेकर जाता है. वह केवल एक ऐसा व्यक्ति नही होता जो मीठी-मीठी बातें करता हो या किसी का समर्थन पाने के लिए एकपक्षीय वचन देता है.. वह एक आईने से बढ़कर होता है जो आपको आपकी सच्ची छवि दिखाता है और आपको आपके दुखों और कष्टों से ऊपर उठने में सहायता करते है, आपको उन्नति करने का अवसर प्रदान करते है.
गुरु की पहचान का सबसे पहला लक्षण होता उनका सभी चीजों से वैराग्य या अनासक्ति. जैसे जैसे आप अपने गुरु के समीप आते जाते है, आप बिल्कुल वैसा ही वैराग्य जो उनमें बसता है अपने भीतर भी महसूस करने लगेंगे. यह इस बात का सूचक है की आप निश्चित तौर पर सही जगह पर है. रुद्र्यमाला गुरु की विशेषताओं को एक ऐसे व्यक्ति के रूप में वर्णित करते है जिसमें कोई कमी नही हो, जो पूरी तरह से किसी भी दोष से मुक्त हों, जो त्रुटिहीन चरित्र रखता हों, जो धर्म का पालन करता हों और अध्यात्म का अध्ययन करता हों और पूरी तरह से अपने गुरु के लिए समर्पित हों.
एक महान विजेता एक महान गुरु से प्रेरित होता है
एक गुरु को अभी भी यमस और नियमस में रहने को कहा जाता है. कोई भी व्यक्ति जो यमस के सत्य, अस्तेया और अपरिग्रह का पालन करते है वो कभी भी अपने अनुयायियों को योग सिखाने के लिए किसी भी प्रकार के शुल्क या धन को नही लेंगे. कोई भी व्यक्ति जो ब्रह्मचर्यं के यम का पालन करता है वो व्रत या उपवास से आने वाले तेज को निकाल सकता है. एक गुरु जो बोलता है उसका प्रसार करता है. वह अभूतपूर्व ऊर्जा, आकर्षण और तेज को धारण करेगा. एक शिष्य अपने गुरु के साहचर्य में इस तेज और आकर्षण का अनुभव करता है और साथ ही इस ऊर्जा को भी महसूस करता है.
जैसे एक सूर्य साधक सूर्य के तेज और दमक को फैला देता है ठीक उसी प्रकार एक शिष्य अपने गुरु के तेज और ऊर्जा का प्रसार करता है. जैसे-जैसे वो अपने गुरु पर अपना ध्यान केंद्रित करता है धीरे-धीरे वो एक-एक करके अपने गुरु की विशेषताओं को ग्रहण करना आरंभ करता है और कुछ समय पश्चात् एक शिष्य अपने गुरु के जैसा होना शुरू कर देता है. अतः एक शिष्य के लिए यह जरूरी है की वो इस बात के लिए सुनिश्चित करे की वो किसका पालन करता है , चूंकि जो जैसा पालन करेगा वो अंततः वैसा ही बनेगा.
जब कोई पूरी तरह से किसी एक व्यक्ति के लिए निश्चिन्त और आश्वस्त हो तो उसे किसी और गुरु को ढूंढने में जल्दबाजी नहीं करना चाहिए. क्योंकि जब आप एक बार किसी को अपना गुरु बना लेते है तो आपको उनके दिखाए मार्ग पर सम्पूर्ण विश्वास और पूरी निष्ठा के साथ अवश्य चलना चाहिए. जरा भी उससे कम , किसी भी प्रकार का संदेह या यहाँ तक की उस मार्ग में बदलाव करना भी उसके बाद गुरु के प्रति निरादर होता है. एक शिष्य की यात्रा तब आरम्भ होती है जब वो गुरु से प्रथम बार मिलता है और इस यात्रा के लिए पूरी निष्ठा और लगातार अभ्यास आवश्यक होती है जिसका तब पालन होता है जब नियम का योग में परिणति होता है.