वासुदेव द्वादशी व्रत पर्व का विधान व उसका महत्व
वैदिक धर्म ग्रन्थों के अनुसार वासुदेव द्वादशी व्रत पर्व द्वारकाधीश भगवान श्री कृष्ण के नाम से प्रसिद्ध है। यह वासुदेव द्वादशी व्रत पर्व चतुर मास के शुरुआत आषाढ़ के महीने में देवसयानी एकादशी के एक दिन बाद बड़े ही धूम-धाम से मनाई जाती है। इस दिन श्रीकृष्ण के साथ भगवान विष्णु और माता लक्ष्मी की पूजा की जाती है। पौराणिक कथाओं के अनुसार जो भी भक्त इस अदभुत वासुदेव द्वादशी पर्व को अषाढ़, श्रावण, भाद्रपद और अश्विन मास में वासुदेव द्वादशी की विधि विधान से पूजा करता है उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है। यह व्रत आषाढ़ शुक्ल पक्ष की द्वादशी पर मनाना विशेष फलदायी माना जाता है। इसमें देवता वासुदेव की पूजा, और वासुदेव के विभिन्न नामों एवं उनके व्यूहों के साथ पाद से सिर तक के सभी अंगों का पूजन होता है।
नारद मुनि द्वारा कथा का वृतांत :-
धर्म ग्रन्थों व वैदिक ब्राह्मणों के आधार पर वासुदेव द्वादशी के दिन वासुदेव की पूजन का विधान इस तरह से है की उस दिन किसी जलपात्र वासुदेव भगवान की प्रतिमा रखकर रक्त व पीत वस्त्रों से ढककर वासुदेव की स्वर्णिम प्रतिमा का पूजन किया जाता है तथा साथ ही उस दिन दान करने का विशेष विधान है । इस व्रत का विधान नारद मुनि द्वारा वसुदेव एवं देवकी को बताया गया था कि जो भक्त इस व्रत को विधि विधान से रखता है तो उनके सारे पाप कट जाते हैं। उसे पुत्र की प्राप्ति होती है या नष्ट हुआ राज्य पुन: मिल जाता है।
इस प्रकार से इस व्रत का पालन वसुदेव और देवकी ने रखा और उनको हर प्रकर से मुक्ति व खोया हुआ राज्य प्राप्त हुआ इस व्रत का नियम सुबह सबसे पहले नहाने के बाद साफ कपड़े पहनने चाहिये। और पूरे दिन निराहार व्रत रहना होता। भगवान को आप हाथ के पंखे, लैंप के साथ फल फूल चढ़ाने चाहिये। भगवान विष्णू की पंचामृत से पूजा करनी चाहिये। उन्हें भोग लगाना चाहिये। इस दिन विष्णु सहस्त्रनाम का जाप करने से आप की हर समस्या का समाधान होगा। और भक्त सदैव सुख पूर्वक सम्पन्न व अपनी सभी मनोकामनां को सुख पूर्वक जीता है
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